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یک سرِ مو، در همه اعضاىِ من،
نیست به فرمانِ من، اى واىِ من!
عاریتى بیش نبود، اى دریغ،
عقلِ من و هوشِ من و راىِ من
چند خورم سنگِ حوادث که نیست
مشتِ گِلى بیش، سراپاىِ من!
در غمِ فردایم و غافل که کُشت
امشبم اندیشه فرداىِ من
خاکم و دورم ز سرِ کوى تو
آه که خالىست ز من جاىِ من!
با چو منى دشمنى انصاف نیست
دشمنِ من بس دلِ تنهاىِ من
خار زبون را شررى دوزخ است
کیفرِ من بس غمِ دنیاىِ من!
از سرکویت دلِ حسرت نصیب
مىرود، امّا نرود پاى من
خار جُدا رُسته ز شاخ گُلم
نیست کسى یارِ من الاّى من
آینهام، رازِ درونِ مرا
نیک توان دید ز سیماىِ من
آن به زیان شهره متاعم که نیست
هیچ کسى را سرِ سوداىِ من
شکوه بیجا ز فلک چون کنم
کیستم و چیست تمنّاى من؟